सिकुुड़ जाता हैं समय बचपन का,
जिम्मेदारी कभी उम्र देख कर नहीं आ
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Some great work on childhood
ओ मेरे प्यारे बचपन तू फिर से लौट आ
ओ मेरे प्यारे बचपन तू फिर से लौट आ
ले चल मुझे उस दुनिआ में ,जहा थी ना कोई फ़िक्र न कोई परवाह
मुझे तू फिर उन पुरानी यादों से मिला
वो पुराने दोस्त वो खेल खिलोने और अठखेलिया
ना कमाने की फ़िक्र ना जीने के लिए थी भागदौड़ वहा
काम था अपना सिर्फ पड़ना खेलना और मस्तिया
वो पापा की डांट के डर से पलंग के निचे छुपना
करना नाटक पड़ने का, और शैतानी में दिमाग का घूमना
वो स्कूल बेल बजने का इंतजार ,और घर के लिए सरपट दौड़ना
घर जाके माँ के हाथ का खाना खाना ,और उसी में जमाने भर का सुख सोचना
वो चिड़ाना भाई बहनो को अच्छी अच्छी चीजे खाके,थोड़ा रोकना
वो लड़ना खेल खिलोने के लिए और मिल के उन्हें आखिरी में तोडना
वो होली और दिवाली पे नए कपडे आने का इंतजार
और पहन के उन कपड़ो को दिखाना ठाट बाट
वो स्कूल ना जाना बना के बहाना पेट दर्द का
और बंक कर के टूशन दोस्तों के साथ घूमना
ना था कोई गम ना मंजिल की परवाह
ना कोई खवाहिश और दोस्रो से ईर्ष्या
तब ना तो पैसे थे और ना कोई बड़े सपने अपने थे
हम तो बस उन चंद दोस्तों और छोटी छोटी चीजों में खुशिया ढूंढा करते थे
कहने को सब कुछ है मगर वो बचपन जैसा सुख कहा
वो बेफिक्र ज़िन्दगी ना कल की चिंता ना आज की परवाह
चाहे आज जितना सफल हो जाये उस बचपन को ना हम वापिस ला पाएंगे
वो मस्ती हसी शैतानिया उनको कैसे भुलायेंगे
ओ मेरे प्यारे बचपन तू फिर से लौट आ
ले चल मुझे उस दुनिआ में जहा थी ना कोई फ़िक्र न कोई परवाह
Author :- tanya
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बचपन का घर / तरुण भटनागर
जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था,
तब खयाल नहीं आया,
कि यह यात्रा एक आैर घर के लिए है,
जो निलर्ज्जता के साथ छीन लेगा,
मुझसे मेरे बचपन का घर।
यंू दे जाएगा एक टीस,
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं,
क्योंकि दुनियादारी होते हुए,
रोज़ छूट रहे हैं,
लाखों लोगों के,
लाखों बचपन के घर।
कितना अजीब है,
जो हम खो देते हैं उमर् की ढलान पर,
वह फिर कभी नहीं लौटता,
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता,
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।
माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, जि़द, दुलार, सुख ़ ़
सब चले जाते हैं,
किसी ऐसे देश में,
जहां नहीं जाया जा सकता है,
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी,
वहां कोई नहीं पहंुच सकता।
ना तो चीज़ों को काटा-छांटा जा सकता है
आैर ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है,
पूरा दम लगाकर भी,
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।
हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकट्ठा होते हैं,
बचपन के घर में,
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।
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बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के / रमेश तैलंग
दादाजी ने सौ पतंगे लूटीं
टाँके लगे, हड्डियाँ उनकी टूटी,
छत से गिरे, न बताया किसी को,
शैतानी करके सताया सभी को,
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
सारे रिश्तेदार बचपन में खिलौने थे
हर वाद्य बचपन में झुनझुना
हंसी की चहचहाहट भर थे गीत बचपन में
ईश्वर बचपन में माँ था
हर एक चीज़ को
मुंह में डालने की जिज्ञासा भर था विज्ञान बचपन में
और हर नृत्य बचपन में
तेरी उछल-कूद से ज्यादा कुछ नहीं था
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के / रमेश तैलंग
दादाजी ने सौ पतंगे लूटीं
टाँके लगे, हड्डियाँ उनकी टूटी,
छत से गिरे, न बताया किसी को,
शैतानी करके सताया सभी को,
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
मम्मी ने स्कूल में मार खाई,
मैडम की अपनी हँसी थी उड़ाई,
कापी मंे नंबर भी खुद ही बढ़ाए,
पर किसमें हिम्मत थी, घर में बताए?
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
पापा थे कंचों के शौकीन ऐसे,
छुप-छुप चुराते थे दादा के पैसे,
गर्मी का मौसम हो या तेज सर्दी,
जमकर उन्होंने की अवारागर्दी,
बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
